Thursday, July 25, 2013

मिड-डे-मील के साथ ही शिक्षा पर भी ध्यान देना जरूरी है|

          ... पर शायद किसी को भी बच्चों की शिक्षा के सुधार की चिंता तक नहीं है|

    पिछले दिनों बिहार में मिड डे मील को खाने वाले बच्चों के मरने के बाद कई दिनों तक बेहद शर्मनाक बयानबाजी होती रही है| यह शर्मनाक ही है कि "कुछ राजनैतिक पार्टीयां मिड डे मील से मरने वाले बच्चों के मामले को राजनैतिक विरोधियों का षडयंत्र बता रही हैं|" इन राजनैतिक पार्टीयों को इन्सान के बच्चों के मरने से कोई लेना देना नहीं है , "बच्चों के मरने को  एक मौखोल बना दिया है|" सभी राजनैतिक पार्टीयां, भले ही वो विरोधी हों या सत्ता-पक्ष अपने-आपको पाक-साफ बता रही हैं| हमारे देश के नेता अपनी गन्दी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के लिए किस हद तक गिर सकते हैं? यह बताने की जरुरत नहीं है| विरोध करने वाले हों या आरोप लगाने वाले, यह सभी नैतिक रूप से से इस जघन्य अपराध के लिए जिम्मेदार हैं| इन लोगों के सामने किसी की भी जान की कीमत कुछ भी नहीं है, इन लोगों का जमीर शायद पूरी तरह से मर चुका है, या इन लोगों ने अपने जमीर को राजनीति के दलदल के एक कौने में दबा दिया है| यह लोग लाशों के उपर भी राजनीति करने से गुरेज नहीं करते, शर्म नहीं करते| जब इन लोगों के परिवार का (...पर भगवान ऐसा न करे) कोई मरे तो शायद इन लोगों को कुछ अहसास हो पाए| मगर यह बेशर्म लोग उस पर भी राजनीति न करें यह संभव नहीं लगता|
मिड डे मील की योजना सरकार ने यह सोच कर चलायी थी कि जो गरीब बच्चे घर पर दो वक्त नहीं खा सकते, वो गरीब बच्चे दोपहर का खाना खाने के लालच में स्कूल आ जायेंगे और पढाई भी करेंगे| इस योजना के मूल में यही था कि कभी विश्व गुरु रहा यह देश विश्व भर में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा है, यह संभवता अपनी स्थिति सुधार ले| शिखा को पिछड़ाने में इस योजना का भी हाथ है| इस योजना के नाम पर मौत तो बंटी रही है, देश के विभिन्न हिस्सों से गड़बड़ी की भी खबरें आ रही हैं| शिक्षा के क्षेत्र में सुधर के लिए शुरू की गयी योजना भी अन्य सरकारी योजनाओं की तरह ही बर्बाद हो रही, नाकाम हो रही है|
      लगभग ढाई सौ से ज्यादा सरकारी स्चूलों में मेरा जाना हुआ है|अधिकांश स्चूलों में अव्यवस्थाएं चरम पर हैं| गांवों में दूर-दराज के स्कूल न तो समय पर खुल्तें है और न ही समय पर बंद होते हैं| कई स्चूलों में बच्चे खुद साफ-सफाई करतें है और झाड़ू लागतें हैं| कई स्कूलों में अधिकतर अध्यापक छुट्टी पर रहते हैं | शिक्षकों की कम संख्या के कारण ही कई लग-अलग कक्षा के बच्चों को एक साथ बैठा कर पढाया जाता है|पूछने पर पता चलता है कि शिक्षक महोदय छुट्टी पर गए हैं| अध्यापकों का छुट्टी लेने का तरीका भी नायाब है| छुट्टी लेने वाले अध्यापक महोदय छुट्टी का प्रार्थना-पत्र स्कूल में दे देते हैं| अगर अध्यापक महोदय के पीछे से जाँच हो गयी तो, प्रार्थना-पत्र मौजूद होता ही है| अगर जाँच नहीं हुई तो अध्यापक महोदय के आने के बाद वह प्रार्थना-पत्र फाड़ दिया जाता है| इसमें सभी अध्यापक/हेड-मास्टर की रजामंदी होती है, क्योंकि किसी को भी गाहे-वगाहे छुट्टी लेनी की जरुरत पड़ सकती है, जैसा की अधिकतर सरकारी दफ्तरों में होता है|सबसे मिल-जुल कर चलना अच्छा होता ही है|
      कई स्कूलओं में हेड मास्टर/प्रधानाध्यापक महोदय जब स्कूल में आते हैं तो आते ही या फिर अपने रास्ते से ही "जरुरी डाक" देने CRC या BRC चले जातें हैं या कई और अधिकारिओं के पास चले जातें हैं| सरकार लाखों रूपए खर्च करके समय-समय पर इन अध्यापकों की ट्रेनिंग की वयवस्था कराती है| इन ट्रेनिंग कैम्पों के नाम पर कई-कई दिनों तक शिक्षा का काम ठप्प रहता है| अध्यापकों की इस ट्रेनिंग से बच्चों की शिक्षा को कितना फायदा पहुंचा है, यह भी एक खोज का विषय है? हेड-मास्टर/प्रधानाध्यापक स्कूल में होते हैं तो उनका उद्देश्य होता है, कि मिड डे मील की पूरी तैयारी होनी चाहिए, फिर पढाई चाहे हो या न हो| हेड मास्टर मिड डे मील की तैयारी में लग जाते हैं| वह जानते हैं कि मिड डे मील की कभी भी जाँच हो सकती है, लेकिन यह चिंता का विषय नहीं है क्योंकि जो भी अधिकारी बाहर से आएगा उसे स्थानीय अधिकारी ही स्कूल तक रास्ता दिखा कर लायेंगे, और स्थानीय अधिकारी तो जाँच से पहले ही फ़ोन पर हेड-मास्टर को सूचना देते हैं| सूचना आ जाने पर मिड डे मील का खाना तो अच्चा बनता ही है, साथ ही साथ स्कूल के सभी रजिस्टर आदि भी पुरे हो जाते हैं| देखा जाँच का कमाल, जाँच हो जाती है और गुणवत्ता की रिपोर्ट लग जाती है| ....पर सचाई सभी जानते हैं कि करोड़ों-अरबों रूपए की इस योजना में मिड डे मील कितने निम्न स्तर का मिलता है? खाना खाने के बाद सभी बच्चे नल पर अपने-अपने बर्तन धोते हैं| नल के पास की गंदगी देख कर किसी को भी उबकाई आ जाएगी|
      जब मिड डे मील का राशन नहीं मिल पता है तो हेड-मास्टर/प्रधानाध्यापक महोदय बच्चों को थोड़ी-थोड़ी मूंगफली या रेवड़ी या अन्य कोई चीज बाँट कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं| मिड डे मील में गोलमाल के बहुत तरीके हैं, कुछ हेडमास्टर स्कूल के रजिस्टर में छात्रों की संख्या बड़ा देते हैं| एक सौ बच्चों के लिए बन सकने वाली दाल/सब्जी पानी डाल कर एक सौ पचास से दो सौ बच्चों के लिए तैयार की जाती है| कच्ची-पक्की रोटी और हलकी क्वालिटी के चावल बनाये जाते हैं| कुछ हेड-मास्टर/प्रधानाध्यापक बताते हैं कि वह लोग यह सब गड़बड़ अपनी गाड़ी/मोटर साईकल में पेट्रोल डालने जितना ही करते हैं| कुछ कहते हैं कि CRC,BRC और ऊपर तक इन सभी स्कीमों का हिस्सा जाता है|
      मिड डे मील के अलावा सरकारी स्कूलों में अन्य बहुत सी योजनाएं चलती हैं| जैसे-अल्पसंख्यक और जाति आधारित छात्र-व्रत्तियां मिलती हैं, और इन सबके अलावा स्कूल की ड्रेस, स्टेशनरी, साईकल और अन्य समान बांटने की योजनायें भी चल रही हैं| कई जगह ऐसे स्कूल हैं जहां अधिकांशत: इन योजनों का लाभ ले सकने वाले ही छात्रों की संख्या ज्यादा होती है| पुरे स्कूल में से केवल कुछ बच्चे ही इन योजना से वंचित रह जाते हैं| इन योजनाओं से वंचित रहने वाले बच्चों के मन में निराशा और कुंठा घर कर जाती है कि "पूरे स्कूल में से केवल हम ही लोगों को क्यों समान (वस्तु ) नहीं दिया गया है?" वंचित बच्चे यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि फलां धर्म/जाति के बच्चे ही हम से बेहतर हैं| वास्तव में इन योजनाओं के कारण शिक्षा के मंदिर कहे जाने वाले स्कूल (विद्या+लय) जाने-अनजाने ही परोक्ष रूप में समाज में विघटन और वेमन्य्स्यता फैलाने का कारण भी बन रहे है|कुछ स्कूलों में वास्तविक छात्र संख्या के बदले ज्यादा छात्र संख्या रजिस्टर में चढ़ाई जाती हैं,ज्यादा दिखाई गई छात्र-संख्या का मिला पैसा हेड-मास्टर और अन्य अध्यापक आपस में बन्दर-बांट कर लेते हैं| स्कूलों में बंटने के लिए जो-जो समान आता है, उसकी खरीददारी प्राय: स्कूल के हेड-मास्टर ही करते हैं| स्कूल के हेड-मास्टर खरीदी जाने वाली वस्तु में अपना कमीशन तय कर लेता है| खरीदी गई वस्तु का बिल सरकारी दर के अनुसार ही बनवाता है| सरकारी दरों के बिल होने के कारण इस गोलमाल का किसी को भी पता नहीं चल पता है| इन सौदेबाजियों में CRC BRC और अध्यापक संघ के पदाधिकारी भी सम्मलित हो सकते हैं|
      अधिकांशत: गाँव के प्रधान स्कूल की शिक्षा सिमितियों में शामिल होते हैं| गाँव के लोग अधिकतर इन गलत व्यवस्थाओं विरोध इस कारण से नहीं करते कि "स्कूल से मिलने वाली फ्री सेवाओं व वस्तुओं को प्राप्त करने में और गाँव के प्रधान आदि के विरोध के वजह से परेशानियों का सामना करना पड़ेगा|" कई बार राजनैतिक द्वेष से इन योजनाओं का विरोध किया जाता है|
      मैंने बहुत नजदीक से सरकारी स्कूलों में पाया कि बच्चों में बहुत सामान्य ज्ञान का भी आभाव है| शहरों के गली-मौहलों में स्कूल इन सरकारी स्कूलों से ज्ञान-जानकारी के मामले में बहुत आगे हैं| बल्कि यह पब्लिक स्कूल सरकारी स्कूलों से कहीं अच्छी शिक्षा उपलब्ध करवा रहे हैं, साथ ही सरकार के खर्च होने वाले करोड़ो-अरबों रुपए के मुकाबले कम खर्चे में| पब्लिक स्कूल के अध्यापकों की सैलरी सरकारी स्कूलों के मुकाबले बहुत कम है|
      एक दौर था जब लोग अपने बच्चों को सरकारी ऑफिसर या बड़ा बिजनेसमैन बनाना चाहते थे| पर अब अधिकतर लोग अपने बच्चों को "सरकारी अध्यापक" बनाना चाहते हैं| आजकल ऐसा कहा जाता है कि "यदि पति-पत्नी दोनों ही सरकारी अध्यापक हैं , तो वेह लोग केवल ट्यूशन पढ़ा कर ही अपने घर का खर्चा चला लेते हैं| उन लोगों को अपनी तनख्वा को छूने की जरुरत नहीं पड़ती|" साथ में लोग कहते हैं कि ऊपर की कमाई अलग से| आज के दौर में मकान और गाड़ी/मोटर साईकल का होना मामूली बात है, जबकि एक समय था जब, सरकारी अध्यापक केवल साईकल पर चलते थे | एक मध्यम वर्गों /परिवार के लोग मकान बनाने और गाड़ी खरीदने में जी जान लगा देते हैं|विभिन्न आयोग वास्विकता से अपरिचित हो कर समय-समय पर सरकारी अध्यापकों की तनखाह बढ़ाने की सलाह देते रहते हैं, और सरकार इन सुझावों को मान भी लेती है| ... पर शायद किसी को भी बच्चों की शिक्षा के सुधार की चिंता तक नहीं है|

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